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 संस्कृति विभाग के तत्वावधान में "निदिध्यासन" विषय पर आयोजित शंकर व्याख्यानमाला में स्वामी जी का वर्चुअल उद्बोधन

चिन्मय मिशन के स्वामी तेजोमयानंद सरस्वती जी ने कहा कि मन, बुद्धि और विचार को संयमित कर ही सच्चिदानंद स्वरूप का बोध संभव हो सकता है। उन्होंने कहा कि हमें आत्मदर्शन करना चाहिए, जिसके साधन श्रवण और मनन हैं। स्वामी जी ने कहा कि मुंडकोपनिषद में आत्मदर्शन से तात्पर्य अपने अंदर स्थित सत्य अविनाशी सच्चिदानंद स्वरूप के ज्ञान से है। 'निदिध्यासन' का प्रयोजन ही मन की विपरीत भावनाओं को दूर करके अपने शुद्ध सच्चिदानंद स्वरूप में स्थित होना है। इसके स्वरूप के बारे में श्रीमद् भागवत गीता में विस्तार से वर्णन किया गया है।

स्वामी तेजोमयानंद सरस्वती आज आचार्य शंकर सांस्कृतिक एकता न्यास तथा संस्कृति विभाग मध्यप्रदेश के तत्वावधान में 'निदिध्यासन' विषय पर आयोजित शंकर व्याख्यानमाला में वर्चुअल उद्बोधन दे रहे थे। स्वामी जी ने कहा कि 'निदिध्यासन' के दो पक्ष साधना पक्ष और सिद्ध पक्ष हैं। उन्होंने कहा कि जो मैं नहीं हूँ उसका त्याग करना तथा जो मैं हूँ उसका अनुसरण करना अर्थात सच्चिदानंद स्वरूप को स्थापित करना। हमारे ह्रदय में जो चैतन्य रूप से प्रकाशमान है, उस आत्म- स्वरूप का हमें स्मरण करना चाहिए। मन, बुद्ध, शरीर यह सब हमारा शुद्ध स्वरूप नहीं है, ये सब हमारी उपाधियाँ हैं, जिनके द्वारा हम कार्य जरूर करते हैं, हमारा शुद्ध स्वरूप आत्मा है जो अनंत स्वरूप ब्रह्म है।

स्वामी जी ने कहा कि आत्मा का मूल ब्रह्म है, इस ब्रह्म की पहचान के लिये धैर्य की आवश्यकता होती है। आचार-विचार और व्यवहार को संयमित करके मन को अपने आत्म-स्वरूप में लाने का प्रयत्न करना चाहिए। मन एक बार आत्म-स्वरूप में स्थित हो जाता है तो कोई दूसरा बाह्य विचार शेष नहीं रह जाता।

मन और विचार की स्थिरता की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए स्वामी जी ने कहा कि 'निदिध्यासन' के लिये व्यक्ति का मन और विचार संयमित होने चाहिए। हमें अपने मन को शुद्ध करके अंदर छिपे आत्म-बोध को देखना है। जब पंच-ज्ञानेन्द्रियाँ और बुद्धि स्थिर हो जाती है तो यह 'निदिध्यासन' की परम अवस्था होती है। जिसने भी इस अवस्था को प्राप्त कर लिया, उसे ही स्थिरप्रज्ञ सिद्ध पुरूष कहते हैं। इस ज्ञानामृत से जो तृप्त हो गया उसकी और कोई आकांक्षा शेष नहीं रह जाती है। 

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